LOVE- ATTRACTION AND DEDICATION

प्रेम-आकर्षण और समर्पण


प्रेम एक अलौकिक और अध्भुत अभिव्यक्ति है जिसका समबंध जीवन  के प्रत्येक पहलू से है।  कहते हैं कि आकर्षण और प्रेम दोनों भिन्न चीज़ें हैं, दोनों में बहुत अंतर है, आकर्षण  को प्रेम नहीं कह सकते क्यूंकि प्रेम की पूर्णता तो समर्पण से होती है कि आकर्षण से। आकर्षण को कभी भी प्रेम नहीं कहा जा सकता और बिना समर्पण के कोई प्रेम अपनी  पूर्णता को कभी प्राप्त नहीं कर सकता चाहें वो प्रेम मानवों के बीच हो,  पशु और पक्षियों के बीच हो अथवा सजीव प्रकृति वाले लोगों का निर्जीव वस्तुओं हो।

 आकर्षण प्रेम के प्रारम्भ की प्रथम  सीढ़ी है और आकर्षण के बाद ही प्रारम्भ होने वाला लगाव समर्पण की सीमा तक जाकर प्रेम की परिणीति को पूर्णता प्रदान करता हैआकर्षण समर्पण की सीमा तक का सफर तय कर पायेगा या नहीं ये पूर्ण रूप से दो प्रेम करने वाले अथवा आकर्षण को प्रेम समझने वाले व्यक्तियों के आपसी भावनात्मक संबंधों, उनके एक दुसरे के प्रति व्यवहार और कर्तव्यों की प्रकृति पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है।

       जब एक प्राणी किसी अन्य प्राणी की और आकर्षित होता है तभी उसके हृदय में उसके प्रति प्रेम के बीज अंकुरित होते  हैं और जैसे जैसे समय की  धारा के साथ साथ दोनों के सम्बन्ध अनुकूल रूप से आगे बढ़ते जाते हैं  एवं आपसी व्यवहार कुशलता और एक दुसरे के प्रति समयानुसार अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए जब उस बिंदु तक पहुंच जाते हैं जहाँ पहुंचने के बाद कोई भी एक दुसरे के सुख के प्रति बिना किसी स्वार्थ की भावना के कितना भी बड़े से बड़ा बलिदान करने को सहर्ष ही तैयार रहता  है तो उस अवस्था को ही समर्पण कहा जाता है 


 प्रेम चाहें दांपत्य जीवन का हो, माता-पिता या संतान का हो, प्रेमी प्रेमिका के मध्य का हो, दो मित्रों के बीच हो, दो सखियों के बीच हो, बहिन भाईओं का हो, किसी का अपने पशु- पक्षी से हो, निर्जीव वस्तु के प्रति हो अथवा भगवान और भक्त प्रेम  का हो। प्रेम का आधार तो आकर्षण ही होता है।    

   दांपत्य जीवन का प्रारम्भ भी आकर्षण से ही होता है, एक पति का अपनी पत्नी के प्रति और एक पत्नी का अपने पति के प्रति काफी गहरा आकर्षण होता है जिसे कि दोनों ही एक दुसरे के प्रति पारस्परिक प्रेम की संज्ञा देते हैं किन्तु जैसे जैसे दांपत्य जीवन की गाड़ी अपनी पटरी पर दौड़ना शुरू करती है और गति पकड़ती है वैसे वैसे इस आकर्षण  और प्रेम का अंतर स्पष्ट  होना शुरू हो जाता है। जब दोनों के मध्य के वैचारिक मतभेद सामने आने लगते हैं और दोनों अपनी अपनी रूचि के अनुसार चीज़ों या विचारों का आदान प्रदान शुरू करते हैं तभी कसौटी शुरू होती है प्रेम की परीक्षा की।  

इसी प्रकार जब  पशु प्रेमी अपने पालतू कुत्ते को, अपनी गाय, बकरे  या किसी भी पशु से अत्यधिक प्रेम करता है लेकिन विपरीत परिसितिथियाँ आने पर या उस पशु के लाभ दायक रहने पर उसे मरने के लिए छोड़ दे या घर से निकाल दे तो ये प्रेम उसका आकर्षण ही था।

जो प्रतिकूल समय आने पर ख़त्म हो गया किन्तु जब एक अन्य और चाहें कितनी भी प्रतिकूल परिस्तिथि जाये और वो पशु पालक अपने पालतू पशु को उसके पूरे जीवन काल तक अपने से अलग नहीं होने देत।  बीमार पड़ने पर उसका उपचार करता है या करवाता है उसका पूरा ख्याल रखता है उसके दुःख से दुखी होता है और सुख से सुखी तब उस भावना को ही समर्पण कहा जाता है और यही समर्पण प्रेम है सच्चा प्रेम जो बिना किसी भी स्वार्थ की भावना के उस पशुपालक का अपने पशु के प्रति सदा रहा।

   अत: बिना किसी विववाद के इस सत्य को स्वीकार किया जा सकता  है कि हर आकर्षण प्रेम नहीं होता किन्तु किसी भी प्रेम का आधार केवल आकर्षण ही होता है और उसकी पूर्णता समर्पण से ही होती है क्यूंकि बिना समर्पण के कोई भी प्रेम केवल आकर्षण ही रह जाता है

 

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